Thursday 21 May 2015

रोती हुई संवेदनाओं की आत्मकथा


हिन्दी दलित आत्मकथाओं में डॉ. तुलसीराम की 2010 में प्रकाशित पहला खण्ड "मुर्दहिया" एवम् दूसरा खण्ड 2013 में मणिकर्णिका दलित समाज की त्रासदी और भारतीय समाज की विडम्बना का सामाजिक,आर्थिक,और राजनितिक आख्यान है। यह कृति समाज,संस्कृति,इतिहास और राजनीति की उन परतो को उघाड़ती है जो अभी तक अनकहा और अनछुआ था। बौद्धिकों को भारतीय समाज के सच का आइना दिखाती है कि देखो ,21वीं सदी के भारत की तस्वीर कैसी है?? ये केवल एक आत्मकथा भर नही अपितु पुरे दलित साहित्य की पीड़ा यथार्थ रूप है उनकी भोगी हुई अनुभूति है । मुर्दहिया के बारे में लेखक का मानना है - " मुर्दहिया एक व्यक्ति की आत्मकथा नही हैं बल्कि हमारे गाँव में किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो भी उसका नाम मुर्दहिया ही होता " मुर्दहिया का काफी हिस्सा लेखक के घर-परिवार का बदतर जीवन ,मुर्दहिया के आस पास का जनजीवन,अन्धविश्वास,एक दलित विद्यार्थी-जीवन के असहनीय संघर्षो,संवेदना व् चिंतन कइ फलक कअ अँधेरी गुफा है जिसे पारकरने कइ लिए कभी बुध्द में तो कभी किसी हितैषी में लेखक एक रौशनी की तलाश करता रहता है। वहीँ मणिकर्णिका जो कि बनारस का प्रसिद्ध शमसान घाट है और जिसके बारे में प्रचलित है की यहाँ मरने के बाद शव जलाने पर सीधे मोक्ष मिल जाती है,अन्धविश्वास व् अंधश्रद्धा का उत्तरोत्तर विस्तार ...मुर्दहिया एवम् मणिकर्णिका के बीच महासेतु है जिसपर मनुष्य सभ्यता का विडम्बनापूर्ण ईमारत खड़ा है। मुर्दहिया डॉ तुलसीराम की जन्मस्थली धरमपुर की बहुउद्देशीय कर्मस्थली है और 'सही मायनो में दलित बस्ती की जिंदगी भी ', वहीं मणिकर्णिका में लेखक की तपस्थली काशी का बिम्ब 3d इफेक्ट के साथ सफलतापूर्वक उतारती है। मणिकर्णिका में लेखक ने बीएचयू में सन् 1958 में हुए छात्र आंदोलन की चर्चा की है। समय-समय पर बीएचयू में होने वाले राजनीतिक ध्रुवीकरणों तथा विघटनकारी तत्वों की गतिविधियों से शैक्षणिक माहौल के दूषित होने का विस्तृत परिचय दिया है। चिन्तन-धारा में परिवर्तन का उल्लेख इस प्रकार हुआ है—‘नास्तिकता तथा कम्युनिज्म को मैंने मानव मस्तिष्क के चिंतन की सर्वोच्च पराकाष्ठा के रूप में अपनाया। —ईश्वर को चुनौती देना कोई मामूली बात नहीं थी। यह बड़ा मुश्किल काम है, जिसके लिए साहसी होना अत्यावश्यक है, क्योंकि ईश्वर हमेशा डरपोक दरवाजे से ही मस्तिष्क में घुसता है। वस्तुतः मुर्दहिया और मणिकर्णिका दोनों ही शमसान घाट है और मृत्यु का आवरण सदैव दोनों में मौजूद है। इससे यह आभास होता है की मानो दलित जीवन में जिन्दगी के साथ साथ मृत्यु भी सदैव विद्यमान रहती है। मणिकर्णिका पर आयोजित एक सेमिनार में डॉ नामवर सिंह कहते हैं- यह मृत्यु की छाया क्यों मंडरा रही है सब पर,यह मुझे जानकर आश्चर्य है और शायद जो जीवन को बहुत प्यार करता है उसी में मृत्यु बोध सबसे ज्यादा होता है। बहुत कम आत्मकथाएं होती है जिनमे अपने अलावा पुरे समाज का एक इतिहास उसी में निहित होता है। दरअसल,मुर्दहिया जहाँ डॉ तुलसीराम के अवचेतन में छिपे सुप्त विचार है वहीँ मणिकर्णिका उनका चेतनावस्था में फलीभूत उनके वैचारिक संघर्ष है।छात्र जीवन की मुश्किलें,द्वंद्व,सफलता,नाकामी,प्रेरणा,राजनीति,व् प्रेम सबकुछ एक चलचित्र की भाँति ,अपने समय से टकराते हुए,समाज के सुख-दुख को साझा करते हुए एक इस्पाती दस्तावेज है। ये लेखक के निजी जीवन की झांकी मात्र नही वरन समकालीन सामाजिक एवम् युगीन स्थितियो ,परिस्थितियों, का आइना है। ‘मणिकर्णिका’ का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है। इसमें देश के विभिन्न आन्दोलनों—नक्सलवाद, जेपी आंदोलन, दलित प्रसंग आदि की चर्चा है तो विश्वस्तर पर घटने वाले उपक्रमों का तथ्यात्मक उल्लेख है। इस प्रकार आत्मकथा में इतिहास भी अपना चेहरा खोले हुए है। पद्यात्मक उल्लेखों ने गद्य की नीरसता को सरसता प्रदान की है। कृति की भाषाशैली आकर्षक और बोधगम्य है।

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